पहाड़ों की रानी शिमला में माता तारा देवी जी की गाथा @thrsamskara

तारा देवी माता का मंदिर शिमला से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित है जहां से चायल, जुन्गा चूड़धार के बर्फ वाले पहाड़ और नीचे कसौली और चंडीगढ़ के नजारे दिखाई देते हैं। यदि रेलवे द्वारा कालका से शिमला जाते हैं तो शोघी स्टेशन पर उतर कर बस द्वारा तारा माता मंदिर जा सकते हैं। मंदिर में प्रात से ही पूजा-पाठ शुरू हो जाती है।

क्या है प्रथा ? –

स्थानीय लोगों की जब गाय सूती है तो शुरू का मक्खन या घी तारा माता को चढ़ाया जाता है जो कि लगभग 1 किलो तक होता है । उसी घी में माता के लिए प्रसाद चढ़ाया जाता है और मंदिर में उपस्थित श्रद्धालुओं को बांटा जाता है। हर रविवार को श्रद्धालुओं के लिए भंडारा (भोजन) की व्यवस्था की जाती है। काफी श्रद्धालु भंडारा देते हैं कई बार तो भंडारा देने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बहुत हो जाती है और आठवें दसवें रविवार को ही भंडारा देने की बारी आती है। नवरात्रों के दिनों में तो हर दिन भंडारा होता है। मेले का आयोजन भी किया जाता है इसमें कुश्तियोँ भी कराई जाती है। मंदिर में सफाई की बहुत अच्छी व्यवस्था है। श्रद्धालुओं को बैठने के लिए सत्संग हॉल तथा अन्य कमरों की व्यवस्था है। मुख्य गेट पर वाद्य यंत्रों नगाड़ा व शहनाई की मधुर ध्वनि मन को मोह लेती है। स्थानीय इलाके के लोग और विशेषकर क्योंथल रियासत के लोग इस मंदिर में आकर परंपरागत प्रथा को निभाते हैं। इस मंदिर में शिमला शहर तथा सारे उपमंडल शिमला ग्रामीण की बड़ी श्रद्धा है।

क्या है मंदिर की कहानी –

बताया जाता है कि एक राजा भूपेंद्र सेन जुन्गा नरेश शीलगांव के जंगल में शिकार करने गया उसी समय उसे शेर की गर्जना झाड़ियों से सुनाई दी और नारी की आवाज आई राजा मैं तुम्हारी कुलदेवी हूं तुम यंही मेरा मंदिर बनाकर तारा मूर्ति स्थापित करो मैं तुम्हारे कुल और पुत्र की रक्षा करूंगी। रजा ने वहां पर मंदिर बना दिया और मूर्ति स्थापित कर दी। यह तारा देवी माता का उत्तर भारत का पहला मंदिर बन गया और पूजा-अर्चना प्रतिदिन शुरू कर दी गई। मंदिर में काष्ठ विग्रह तारा चतुर्भुजी एवं अष्टभुजी रूप में स्थापित की थी।

बलि पर प्रतिबन्ध –

पहले यहां पशु बलि दी जाती थी। अब यह प्रथा बंद कर दी गई है। देवी ने गूर के माध्यम से इच्छा प्रकट की थी कि यहां दूधाधारी वैष्णो देवी का मंदिर बनाया जाए। वर्ष 2005 में मंदिर के निर्माण शुरू हुआ और इस मंदिर के साथ ही शिवलिंग मंदिर दूधाधारी वैष्णवी का मंदिर बना दिया। वर्ष 1987 में तारा देवी मंदिर न्यास बनाने के बाद मंदिर का प्रावधान न्यास के अंतर्गत आ गया।

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