ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक सप्त ऋषियों में से एक महर्षि वशिष्ठ के पौत्र महान वेदज्ञ, ज्योतिषाचार्य, स्मृतिकार एवं ब्रह्मज्ञानी ऋषि पराशर…
ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक सप्त ऋषियों में से एक महर्षि वशिष्ठ के पौत्र महान वेदज्ञ, ज्योतिषाचार्य, स्मृतिकार एवं ब्रह्मज्ञानी ऋषि पराशर के पिता का नाम शक्तिमुनि और माता का नाम अद्यश्यंती था। ऋषि पराशर ने निषादाज की कन्या सत्यवती के साथ उसकी कुंआरी अवस्था में समागम किया था जिसके चलते ‘महाभारत’ के लेखक वेदव्यास का जन्म हुआ। सत्यवती ने बाद में राजा शांतनु से विवाह किया था।
पराशर बाष्कल और याज्ञवल्क्य के शिष्य थे। पराशर ऋषि के पिता को राक्षस कल्माषपाद ने खा लिया था। जब यह बात पराशर ऋषि को पता चली तो उन्होंने राक्षसों के समूल नाश हेतु राक्षस-सत्र यज्ञ प्रारंभ किया जिसमें एक के बाद एक राक्षस खिंचे चले आकर उसमें भस्म होते गए।
कई राक्षस स्वाहा होते जा रहे थे, ऐसे में महर्षि पुलस्त्य ने पराशर ऋषि के पास पहुंचकर उनसे यह यज्ञ रोकने की प्रार्थना की और उन्होंने अहिंसा का उपदेश भी दिया। पराशर ऋषि के पुत्र वेदव्यास ने भी पराशर से इस यज्ञ को रोकने की प्रार्थना की। उन्होंने समझाया कि बिना किसी दोष के समस्त राक्षसों का संहार करना अनुचित है। पुलस्त्य तथा व्यास की प्रार्थना और उपदेश के बाद उन्होंने यह राक्षस-सत्र यज्ञ की पूर्णाहुति देकर इसे रोक दिया।
दरअसल कथा इस प्रकार है कि एक दिन की बात है कि शक्ति एकायन मार्ग द्वारा पूर्व दिशा से आ रहे थे। दूसरी ओर (पश्चिम) से आ रहे थे राजा कल्माषपाद। रास्ता इतना संकरा था कि एक ही व्यक्ति निकल सकता था तथा दूसरे का हटना आवश्यक था। लेकिन राजा को राजदंड का अहंकार था और शक्ति को अपने ऋषि होने का अहंकार। राजा से ऋषि बड़ा ही होता है, ऐसे में तो राजा को ही हट जाना चाहिए था। लेकिन राजा ने हटना तो दूर उन्होंने ऋषि शक्ति को कोड़ों से मारना प्रारंभ कर दिया। राजा का यह कर्म राक्षसों जैसा था अत: शक्ति ने राजा को राक्षस होने का शाप दे दिया। शक्ति के शाप से राजा कल्माषपाद राक्षस हो गए। राक्षस बने राजा ने अपना प्रथम ग्रास शक्ति को ही बनाया और ऋषि शक्ति की जीवनलीला समाप्त हो गई।
महर्षि पराशर के पुत्र हुए ऋषि वेदव्यास जिन्होंने ‘महाभारत’ की रचना की थी। वेदव्यास का नाम कृष्ण द्वैपायन था। वेदव्यास की माता का नाम सत्यवती था। सत्यवती का नाम मत्स्यगंधा भी था, क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध आती थी और वह नाव खेने का कार्य करती थी। एक बार जब ऋषि पराशर उसकी नाव में बैठकर यमुना पार कर रहे थे तब उनके मन में सत्यवती के रूप-सौन्दर्य को देखकर आसक्ति के भाव जाग्रत हो गए और उन्होंने सत्यवती के समक्ष प्रणय संबंध का निवेदन कर दिया।
सत्यवती यह सुनकर कुछ सोच में पड़ जाती है और फिर उनसे कहती है कि ‘हे मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या अत: यह संबंध उचित नहीं है।’ तब पाराशर मुनि कहते हैं कि ‘चिंता मत करो, क्योंकि संबंध बनाने पर भी तुम्हें अपना कौमार्य नहीं खोना पड़ेगा और प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।’ यह सुनकर सत्यवती मुनि के निवेदन को स्वीकार कर लेती है। ऋषि पराशर अपने योगबल द्वारा चारों ओर घने कोहरे को फैला देते हैं और सत्यवती के साथ प्रणय करते हैं।
बाद में वे ऋषि सत्यवती को आशीर्वाद देते हैं कि उसके शरीर से आने वाली मछली की गंध, सुगंध में परिवर्तित हो जाएगी। आगे चलकर इसी नदी के द्वीप पर ही सत्यवती को पुत्र की प्राप्ति होती है। यही पुत्र आगे चलकर वेदव्यास कहलाते हैं। व्यासजी सांवले रंग के थे जिस कारण इन्हें ‘कृष्ण’ कहा गया तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप पर उनका जन्म हुआ था इसीलिए उन्हें ‘द्वैपायन’ भी कहा गया। कालांतर में वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुए।
पराशर की रचनाएं : ऋषि पराशर ने कई विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर उसे दुनिया को प्रदान किया था। ऋग्वेद में पराशर की कई ऋचाएं हैं। विष्णु पुराण, पराशर स्मृति, विदेहराज जनक को उपदिष्ट गीता (पराशर गीता), बृहत्पराशरसंहिता आदि पराशर की रचनाएं हैं।
पराशर गीता : महाभारत के शांति पर्व में भीष्म और युधिष्ठिर के संवाद में युधिष्ठिर को भीष्म राजा जनक और पराशर के बीच हुए वार्तालाप को प्रकट करते हैं। इस वार्तालाप को ‘पराशर गीता’ के नाम से जाना जाता है। इसमें धर्म-कर्म संबंधी ज्ञान की बातें हैं। दरअसल, शांति पर्व में सभी तरह के दर्शन और धर्म विषयक प्रश्नों के उत्तर का विस्तृत वर्णन मिलता है।
पराशर का ज्योतिष शास्त्र : पराशर ऋषि ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें से ज्योतिष के ऊपर लिखे गए उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। प्राचीन और वर्तमान का ज्योतिष शास्त्र पराशर द्वारा बताए गए नियमों पर ही आधारित है। ऋषि पराशर ने ही बृहत्पाराशर होरा शास्त्र, लघुपराशरी (ज्योतिष) लिखा है।
पराशर की अन्य रचनाएं : बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता, पराशरीय धर्मसंहिता (स्मृति), पराशर संहिता (वैद्यक), पराशरीय पुराणम् (माधवाचार्य ने उल्लेख किया है), पराशरौदितं नीतिशास्त्रम् (चाणक्य ने उल्लेख किया है), पराशरोदितं, वास्तुशास्त्रम् (विश्वकर्मा ने उल्लेख किया है) आदि उन्हीं की रचनाएं हैं। पराशर स्मृति एक धर्मसंहिता है जिसमें युगानुरूप धर्मनिष्ठा पर बल दिया गया है।
ऋषि पराशरजी एक दिव्य और अलौकिक शक्ति से संपन्न ऋषि थे। उन्होंने धर्मशास्त्र, ज्योतिष, वास्तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, विषयक ज्ञान को प्रकट किया। उनके द्वारा रचित ग्रंथ वृहत्पराशर होराशास्त्र, लघुपराशरी, वृहत्पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्तुशास्त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्त्र, आदि मानव मात्र के लिए कल्याणार्थ रचित ग्रंथ जगप्रसिद्ध हैं जिनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
पराशर झील हिमाचल प्रदेश के, मंडी जिले से 47 किलोमीटर उत्तर में स्थित है, जिसमें तीन मंजिला शिवालय मंदिर है जो ऋषि पराशर को समर्पित है। झील समुद्र तल से 2730 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। गहरे नीले पानी के साथ, झील को ऋषि पराशर के लिए पवित्र माना जाता है और माना जाता है कि उन्होंने वहाँ ध्यान लगाया था। उनके तप के प्रभाव से उनकी परिधि में झील का निर्माण होता गया जिस स्थान पर महर्षि बैठे हुए थे वो एक टापू का रूप ले चूका था जो आज भी पराशर झील के मध्य में देखा जा सकता है। हैरानी की बात यह है की यह टापू पूर्णतः उसी रूप में झील के आसपास चक्कर लगता है जिस प्रकार पृथ्वी सूर्य के आसपास चाकर लगाती है।
बर्फ से ढँकी चोटियों से घिरी और ब्यास नदी के तेज बहाव को देखते हुए, द्रंग के माध्यम से झील से संपर्क किया जा सकता है। मंदिर 13वीं शताब्दी में बनाया गया था और मान्यता है कि इसे एक एकल पेड़ से एक बच्चे द्वारा बनाया गया था। झील कितनी गहरी है यह आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया है। इस झील का तल आज भी नहीं मिल पाया है विज्ञानुसार पुरे विश्व में सभसे गहरा प्रशांत महासागर है जो 11 किलोमीटर गहरा है। परन्तु जब वैज्ञानिको की एक टीम ने झील के अंदर जा कर गहराई मापी तो यह बढ़ती गयी और उन्हें यह परिक्षण तुरंत रोकना पड़ा। टीम से जुड़े एक वैज्ञानक के अनुसार यह झील संसार की सबसे गहरी झील हो सकती है परन्तु धार्मिक स्थल होने के कारण यहाँ के रहस्यों की अधिक वैज्ञानिक विष्लेषण नहीं किया जाता।
इस झील का वैदिक इतिहास कहता है कि महाभारत के रचियता वेद व्यास के पिता महर्षि पराशर के तप की साक्षी भूमि और उसका अद्भुत सौंदर्य आज भी मौजूद है जो सबको अपनी और आकर्षित करता है। यह झील पांडवों द्वारा बनाई गई थी, जब वे देवता कमरुनाग के साथ महाभारत के बाद अपने रास्ते पर थे (जिसके आधार पर आज यह पूरी घाटी कामरू घाटी के रूप में जानी जाती है) अपने शिक्षक, देवप्रयाग और देवता के अलगाव को खोजने के लिए अलगाव पसंद करते हैं इस स्थान पर इतना अधिक है कि उन्होंने जीवन भर यहाँ रहने का फैसला किया। उनके अनुरोध पर, पांडव भाइयों में से एक ने पहाड़ के शिखर पर अपनी कोहनी और अग्रभाग को धक्का देकर झील का निर्माण किया। और यही कारण है कि स्थानीय लोगों द्वारा अंडाकार के आकार की झील के बाद गहराई से अज्ञात माना जाता है। कई बार तूफान में लगभग 30 मीटर लंबा देवदार का पेड़ गिर जाने के कारण गायब हो जाता था।
झील के समीप एक मंदिर भी है जो की पैगोडा शैली में बना है और जिसका निर्माण एक ऋषिकालीन भक्त ने करवाया, बाद में इसका जीर्णोंद्धार मंडी के राजा बानसेन ने करवाया। कहते हैं की यह मंदिर पूर्णतः लकड़ी का बना है और तो और इसकी कीलें भी लकड़ी से निर्मित हैं। आज लोगों की सभी आस्थाओं से आस्था उन्हें यहाँ खींच लाती है। प्रसाद के रूप में लोग पैसे, चाँदी के सिक्के और सोने को पानी में फेंकते हैं। यह स्थान सर्दियों के महीनों, अर्थात् मार्च के माध्यम से पूरे वर्ष के दौरान आगंतुकों के लिए उपलब्ध है। यह स्थान दिव्य और शांति से भरा है, जिसमें भगवान और संत प्रवर की पुरानी छवियाँ हैं। इस झील की अनोखी बात यह है कि यहाँ एक घास है, जो एक छोर से दूसरे छोर तक जाती है। गर्मियों में यह एक छोर है और सर्दियों में यह दूसरे छोर को छूती है।
मंदिर का पुजारी ब्राह्मण नहीं, बल्कि राजपूत होता है। कहा जाता हैं कि राजा एक स्थानीय पुजारी से नाखुश था इसलिए उसने अपनी शक्तियों को प्रदर्शित करने के लिए एक राजपूत पुजारी को नियुक्त किया।